मंगलवार, 20 जनवरी 2009

पेड़ को हिलाया, मैं नहा चुका था सूखे पत्तों से

ट्रेन खड़ी थी। प्लेटफोर्म की तरह। वहां था मैं भी इन्हीं की तरह। रोज होता था यहाँ इसी समय पर हम सबका मेल । मेरी निगाहें भटकती थीं लगभग जंगली इस स्टेशन पर ,इस गाड़ी के आने पर। स्टेशन मास्टर कहता था, ये ट्रेन अब तुम्हें देख कर यहाँ रूकती होगी। -----उन्हें क्या पता था कि मैं तो कब का बुत बन चुका हूँ।

1 टिप्पणी:

  1. पढ़ता हूँ तुम्हे बार बार , आँखों में दर्द का अहसास होने तक और थोड़ी देर बाद फ़िर से यही सब दोहराता हूँ !

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aap svasth rahen.

मेरे बारे में

उज्जैन, मध्यप्रदेश, India
कुछ खास नहीं !