शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

खुले हुए सरफंदे , दिमाग के भी. सोच के पार के भी.  हम ही  तो रोकते हैं हवाओं को, मुहब्बत के पाठ को. अमूर्तन कभी मूर्त भी चाहता है होना. चेहरे पास से आगे भी होना चाहते है. कभी. आखिर कानों से सुनने में क्या बुराई है. फनकार हमारी रूह को आकार दे चुका. और फिर आखिर हम हैं क्या. आईने का कमजोर परफार्मेंस. . किताब के वे दो सों   पेज जो कहीं-२  आए गेप प़र टिके होते हैं.

1 टिप्पणी:

aap svasth rahen.

मेरे बारे में

उज्जैन, मध्यप्रदेश, India
कुछ खास नहीं !