खुले हुए सरफंदे , दिमाग के भी. सोच के पार के भी. हम ही तो रोकते हैं हवाओं को, मुहब्बत के पाठ को. अमूर्तन कभी मूर्त भी चाहता है होना. चेहरे पास से आगे भी होना चाहते है. कभी. आखिर कानों से सुनने में क्या बुराई है. फनकार हमारी रूह को आकार दे चुका. और फिर आखिर हम हैं क्या. आईने का कमजोर परफार्मेंस. . किताब के वे दो सों पेज जो कहीं-२ आए गेप प़र टिके होते हैं.
सुन्दर अभिव्यक्ति !
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